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Sunday 27 November 2011

हड़ताल (व्यंग)

गाय, बैल, गधा, कुत्ता, मुर्गी, घोड़ा सभी ने एक आवाज़ में कहा – ‘ह…ड़…ता…ल’। अख़बार वाले, टीवी वाले, पत्रिका वाले सब के सब खचाखच भरे हुए थे। बस नेता जी के आने की देर थी। फटाफट फोटो उतारे जा रहे थे। कहीं मोबाइल पर प्रत्यक्ष प्रसारण का वाचन चल रहा था तो कहीं टीवी पर साक्षात् प्रत्यक्ष प्रसारण। ख़बर बड़ी थी और अनोखी भी। अद्भुत नज़ारा था। सारे शहर के पालतू जानवरों ने हड़ताल करने का फैसला किया था और वे मुख्य सड़क पर आ गए थे। सारा शहर बेकाबू हो रहा था। कोई कहीं नहीं जा पा रहा था। सब के सब जहाँ थे वहीं क़ैद हो गए थे। पालतू जानवरों को मानव जाति से बेहतर व्यवहार की उम्मीद थी, जबकि वे उनसे अमानुषिक व्यवहार करते हैं, ऐसा उनका कहना था।

    ‘वाह री दुनियाँ ! अब तक तो बस की हड़ताल, आटो की हड़ताल, डाक्टरों की हड़ताल, पानी की हड़ताल, सब्ज़ी की हड़ताल, प्याज की हड़ताल आदि-इत्यादि की हड़ताल से दु:खी थे, अब पालतू जानवरों की हड़ताल में क्या होगा भगवान् ही जाने।’ एक बुज़ुर्ग ने आशंका ज़ाहिर की।

    ‘होना क्या है ? वही होगा जो अब तक होता आया है। सबकुछ बंद। कामकाज ठप्प। लोगों का चलना मुहाल। सब्ज़ी और ज़रूरी सामानों की किल्लत। रेलगाड़ियों और बसों का चक्का जाम। वीआईपी खुशहाल। आम आदमी बेहाल।’ दूसरे बुज़ुर्ग ने तत्क्षण उत्तर दिया।

    अब यह रटी-रटाई बात हो गई है। भला हो गाँधी जी का जिन्होंने यह अचूक रास्ता निकाला था और देश को एक नई दिशा दी थी। असहयोग तब था और आज हड़ताल है। हमें अपने अतीत पर बहुत गर्व है, इसलिए उसे पकड़कर अपने आहाते में रख लेते हैं। फिर छोड़ते नहीं क्योंकि उसके अलावा अपना कहने को कुछ है ही नहीं।

    और नेता जी पधारे। सारा हुजूम उनकी तरफ़ लपका, जैसे वे इंसान नहीं लड्डू हों और प्रसाद की तरह बिक रहे हों। शांत हो जाइए, शांत हो जाइए। नेता जी ने दोनों हाथ फैलाकर प्रसाद बाँटा, लेकिन न लोग मान रहे थे और न जानवर। सब के सब एक समान अपनी-अपनी सुनने-सुनाने को बेताब थे। संगम था जानवरों और इंसानों का जिसमें हर चीज़ की समानता थी। आचार-व्यवहार, चाल-चलन और सबसे अहम् – हड़ताल।

    किसी प्रकार नेता जी को माइक मिल ही गई। बोले – ‘भाइयो एवं बहनो !’ और चारों तरफ़ तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। नेता जी विवेकानंद से भी बड़े हो गए। उन्होंने दूसरे देश के लोगों को भाई-बहन माना था और नेता जी ने पालतू जानवरों को भी मान लिया। वाह जी नेताई ! तेरे रंग हज़ार, तेरे रूप अनेक। टीवी वालों ने जुमला फेंका और फिर भाषण शुरू हुआ। कुछ खास नहीं। जो अक्सर होता है, माइक पर चीखना-चिल्लाना और बहकी-बहकी बातें करना। सबों को भड़काना और ख़ुद को मसीहा बताना। जो भी हो हड़ताल की शुरुआत तो हो गई और सबकुछ बंद हो गया।

    नेता जी की जय-जयकार में कुत्तों की भौं-भौं, गधे का ढेंचू-ढेंचू, मुर्गे की कुकड़ुमकू, बिल्ली की म्याऊँ-म्याऊँ भी शामिल हो गई। नेता जी का विस्तार हो गया। मानव-जगत् के साथ-साथ पशु-जगत् पर भी एकाधिकार छा गया। नेता जी खुश हुए और बोले – ‘आज मैं सफ़ल हुआ। इंसान तो क्या जानवरों को भी मात दे गया।’

    परेशानी तब शुरू हुई जब भाषण समाप्त कर नीचे उतरने लगे। कहीं से भी रास्ता नहीं था। आदमी होते तो शायद जगह मिल जाती। जानवर जहाँ थे वहाँ से टस से मस नहीं हो रहे थे। मंच पर उठ रही गंध से बेहाल तो थे ही, भाषण जल्द समाप्त कर भागे, मगर जायें तो जायें कहाँ की धुन मन में बजी। कहीं लीद थी तो कहीं गोबर्। कहीं कुत्ता तो कहीं बिल्ली की… । नाक पर हाथ रखकर किसी तरह उछ्ल-कूदकर मंच से नीचे तो आ ही गए। राम-राम अब नहीं, नेता जी ने कहा। लेकिन अब क्या, जो होना था हो गया ‘ह…ड़…ता…ल’। चलने को जगह नहीं थी। हर तरफ़ जानवर नहीं तो टीवी वाले, पत्रकार, अधिकारी, भिखारी और तरह-तरग के इंसान थे। चलने को सूत भर भी जगह नहीं थी। बिगड़ पड़े – ‘यह क्या मज़ाक है ? हमें तो जाने दो !’

    गधे ने आत्मीयता से कहा – ‘नेता जी, क्षमा करें। यह आदमी की नहीं, जानवरों की हड़ताल है। यहाँ सबके लिए एक-सा हाल है। वे तो न जाने क्यों तरजीह देकर निकाल देते हैं। हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता। सब फँसे हैं, आप भी लुत्फ उठाइए।’