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Tuesday 20 December 2011

मैं आस्तिक कैसे बना? (हास्य-व्यंग)


      मैं आस्तिक कैसे बना ?

यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैं आस्तिक हूँ। लेकिन मैं आस्तिक कैसे बना यह कोई छोटी-मोटी कथा अथवा कहानी नहीं, बल्कि एक दास्तान है। अब आप पूछेंगे कि मैं पहेलियाँ क्यों बुझा रहा हूँ, तो मुझे अपनी दुःखभरी विपदा का बयान करना ही पड़ेगा। आख़िर मैं भी तो इंसान हूँ और अपनी वेदना प्रकट किए बगैर चैन नहीं पा सकता।

     मैं आस्तिक यूँ ही नहीं बन गया। न मैंने वेद व पुराण पढ़े और न ही रामायण या महाभारत। न मुझे ईश्वर के साक्षात् दर्शन हुए और न ही सपने में उन्होंने मुझसे कुछ कहा। फिर यह उपाधि ? नहीं-नहीं आप भ्रम में न पड़ें। इसे मैंने हासिल नहीं की, बल्कि यह सब हुआ टेलीविजन की बदौलत। अब आप कहेंगे कि यह क्या बुझौवल है। इसलिए मुझे अपनी आप-बीती सुनानी ही पड़ेगी। यह सच्चाई है, चाहे जग के लिए हँसाई ही क्यों न हो। अच्छा लगे तो मेरे दुःख में शरीक होकर दो बूँद आँसू ज़रूर बहाइएगा। मुझे अच्छा लगेगा।

     बात उन दिनों की है, जब श्रीयुत् रामानन्द सागर कृत रामायण सीरियल का आगाज़ हुआ था। तब कभी इसकी वजह से झगड़े का निपटारा होता था तो कभी बच्चों की तीर चलाने से मृत्यु। कभी राम नाम का राजनीतिक दुरुपयोग होता था तो कभी अंधे भक्तों पर बम-विस्पफोट। तब कॉलेज, मैदान, बाज़ार, शहर, देहात, पत्रिका, अख़बार हर जगह रामायण का रोग छूत की बीमारी की तरह फैल रहा था।

     यदि रामायण सीरियल देखने के बहाने लोग अपने पाप धोने का स्वांग रचते थे अथवा उसके माध्यम से स्वयं को कलयुग में सतयुगी अवतार समझते थे, तो इसमें उनका क्या नफा-नुकसान था इसका इल्म मुझे नहीं था। परन्तु इतना अवश्य पता था कि इससे टीवी कंपनी वालों की चाँदी ही चाँदी ही थी। ऐसी बिक्री का अंदाज़ा संभवतः भगवान् श्रीराम को भी नहीं होगा। बस धड़ाधड़ बिक रहे थे टीवी सेट्स। जहाँ सिवाय जनसंख्या बढ़ाने के अलावा और कोई मनोरंजन का साधन ही नहीं होता था, उन झुग्गी-झोपड़ियों में भी इसने अपने पैर जमा लिए थे। तो इससे बड़ा उदाहरण हो ही नहीं सकता था। लेकिन जिस तरह हर शेर सवा सेर नहीं होता, ठीक उसी तरह सभी गाँव या शहर दिल्ली नहीं होता। नतीजा बिजली महाशय के दर्शन प्रायः दुर्लभ ही होते थे। तब एक टीवी कंपनी वाले ने पोर्टेबुल टीवी के साथ-साथ बैटरी भी मुफ़्त में देना शुरू कर दिया।


     यहीं पर गाज गिरी मेरे ऊपर और मेरी श्रीमती जी ने अनशन शुरू कर दिया कि टीवी नहीं तो बीवी भी नहीं। अब रोज मायके जाने की धमकी ने मेरे होश उड़ा दिए। और फिर माँ की शह पर बच्चों ने भी चक्का जाम कर दिया। ऊपर से अख़बारों ने भी जीना हराम कर रखा था। आए दिन रामायाण की चर्चा ने घर में महाभारत का ऐलान कर दिया था।
     आपको सुनकर ताज्जुब होगा कि मैं तब भी डटा रहा। पर ख़बरों पर नज़र चली ही जाती थी। और ख़बर भी ऐसी चटपटी कि पूछिए मत। उस दिन की ख़बर सबने पढ़ी ही होगी कि एक दिन एक रेलगाड़ी ग्वालियर स्टेशन पर चार घंटे विलम्ब से पहुँची। जब चलने को हुई तो भारतीय व्यवस्था के दुर्भाग्य से और यात्रियों के सौभाग्य से वह रामायण सीरियल का शुभ समय था। और फिर रेलवे स्टेशन पर भारतीय आधुनिकीकरण का प्रतीक टेलीविजन भी मौजूद था। गार्ड ने सीटी बजाई, हरी झंडी दिखाई - यात्री नदारद। यात्रियों से अनुरोध् किया गया कि गाड़ी चार घंटे विलम्ब से चल रही थी अतः और विलम्ब न करें, तो उनका विचार था कि जब चार घंटे विलम्ब हो ही गया तो एक घंटा और सही। विष को चखो या भरपेट खाओ मरना तो है ही। तब चालक एवं संचालक भी भीड़ में शामिल थे क्योंकि उनके जैसे सरकारी नौकरों को वक्त-बेवक्त काम करना पड़ता था और इस बहती गंगा से एक कटोरा पुण्य बटोरने का मौका नहीं मिल पाता था।

     दूसरे ही दिन एक और ख़बर आई कि मथुरा में एक घर में एक बंदर प्रत्येक रविवार रामायण के समय खिड़की पर मौजूद रहने लगा था। यदि किसी कारणवश टीवी ट्रान्समीशन में कोई व्यवधान पहुँचता तो वह बंदर एंग्री-यंगमैन की तरह घर की चीज़ों को लंका की चीज़ें समझकर तोड़ने लगता था। तब लोगों ने उसे कलयुगी हनुमान का अवतार मान कर उसकी पूजा-अर्चना शुरू कर दी और यथासंभव चढ़ावा भी चढ़ाने लगे। तब भला मेरी बीवी और बच्चों का आसन क्यों न डोले ? सब के सब पिल पड़े मेरे ऊपर जैसे मरे हुए कीट पर चींटियाँ। अब मैं बेबस था।

      मरता क्या नहीं करता मैं भी एक पोर्टेबुल टीवी का मालिक बन बैठा। सभी खुश थे, मुझे छोड़ कर। पहले जब घर में टीवी नहीं था तो केवल घरवाले ही नोचते थे, परन्तु अब सारा गाँव नोचने लगा था। रविवार सुबह सात बजे से ही लोग अपनी-अपनी सीट रिजर्व करने आ धमकते थे क्योंकि टीवी वाले कमरे में ज़्यादा लोगों के बैठने की जगह नहीं थी। आप उन्हें चाय-नाश्ता तो दीजिए ही, साथ ही आपके घरवाले यदि खड़े होकर अथवा बाहर के किसी कोने से झाँक-झाँक कर देखने को मजबूर हों तो भी उन्हें कोई मतलब नहीं था - वे तो पहले ही सीट रिजर्व कर चुके थे। और फिर वे करें भी तो क्या करें? दो हज़ार की जनसंख्या वाले गाँव में केवल तीन टीवी ! अब ऐसे में सीट रिजर्व न करें तो कैसे चलेगा ? आपकी तकलीफ को देखकर वे रामायण तो नहीं छोड़ सकते ! आखिर पुण्य की पोटली उन्हें भी चाहिए। तभी तो वे लोग सीरियल देखते समय भी धूप एवं अगरबत्तियाँ जलाकर शत्-शत् नमन करते रहते थे।

     अब जब रामायण देख लिया तो सुनील गावस्कर प्रजेन्ट्स भी देखना जरूरी था क्योंकि राम-भक्ति के बाद क्रिकेट-भक्ति ही शेष रह जाती है। राष्ट्रीय खेल का नाम शायद ही पता हो लेकिन क्रिकेट के महारथियों को कौन नहीं जानता ? देश के लिए पाँच मिनट नहीं दे सकते लेकिन दिन भर क्रिकेट देखने में कोई आपत्ति नहीं है। यह तो होती थी भक्ति - राम-भक्ति एवं क्रिकेट-भक्ति। इस भक्ति से थके लोगों को मनोरंजन आवश्यक जान पड़ता था और एकाध सीरियल देखने बैठ जाते, यह कहते हुए कि आख़िर रविवार का क्या मतलब। बज गए बारह। सभी खाने चले गए। अब आप भी जाइए।

     कोई आए या ना आए पड़ोसी के बच्चे वर्ल्ड ऑफ स्पोर्टस देखने जरूर आयेंगे। फिर स्पाइडर मैन और शाम को हिन्दी फीचर फिल्म तो है ही -कुल मिला कर, प्रत्येक रविवार मेरा घर यदि कबाड़खाना से बेहतर होता तो चिड़ियाखाना अवश्य होता था।

    यह तो थी रविवार की बात। किन्तु मेरे ग्रामवासी अयोध्यावासियों की तरह राम के लिए चौदह वर्षों तक इन्तज़ार सीरियल बनाने को तैयार नहीं थे। अतः रविवार के अलावे भी रामायण देखने को उत्सुक रहते थे। उन्हें चुनाव के दौरान बेवक्त फिल्मों का जायका जो लग चुका था। अब मेरे घर भीड़ इकट्ठी रहती थी क्योंकि बाकी घरों में या तो हाउसफुल का बोर्ड टंगा होता था या फिर उनके मालिकों ने रावण की तरह नकारात्मक भूमिका निभाई होती थी। अब मैं अरुण गोविल की तरह राम का अभिनय तो कर नहीं कर सकता था कि चुनाव प्रचार में जाकर अपनी छवि बिगाड़ लूँ। एक अदना सा सामाजिक प्राणी होने के नाते खुद को बेबसी का दास बना देखता रहता था। जब अफवाह फैली तो इसमें मेरा इतना ही कसूर था कि टीवी मेरे घर पर था।

      आज रामायण सुबह आठ बजे से ही दिखाया जाएगा, आज इसका अंतिम एपीसोड होगा, आज राम बीमार हो गए हैं, अतः सम्पूर्ण रामायण आज ही दिखा दिया जाएगा, और ... और ... अब तो महाभारत बन कर तैयार हो गया है और आज के बाद से रामायण सीरियल का दाना-पानी बंद, इत्यादि- इत्यादि।

      कृपया आप लोगों को समझाने की जहमत न उठायें अन्यथा वे भारतीय लालफीताशाही की तरह फ़ाइलें नहीं पलटेंगे, बल्कि जबानी आपके सात पुश्तों तक चले जायेंगे। इसी डर से खामोश था। ग़म पीता था और धूम्र-दंडिका के माध्यम से स्वयं को सहज जताता था। जब सर से पानी ऊपर हो जाता तो अपना सिर धुनता था। इधर मैं अपना सिर धुनता और उधर पड़ोसियों के बच्चे मेरे घर के सोफों और बिस्तरों को धुनते रहते थे।

      कभी भूले से भी टीवी पर प्रतिबंध् की बात सोची तो श्रीमती जी का वीटो प्रयोग हो जाता था क्योंकि महिलाओं का कार्यक्रम उन्हें खूब पसंद था, वह भी पड़ोस की महिलाओं के साथ। शान बघारने का इससे अच्छा और कोई मौका ही नहीं था। इसलिए तानाशाही थी।

      ताज्जुब तो इस बात का था कि बच्चे भी टीवी के साथ खिलवाड़ नहीं करते थे क्योंकि कार्टून की दरकार थी। फिर मुझे भी तो रेडियो पर समाचार सुनना खटकने लगा था। और इसलिए मैं नास्तिक से आस्तिक बन गया क्योंकि मुझे पता था कि महाभारत बन कर तैयार थी और बस शुरू ही होने वाली थी। तब मैंने पहली बार प्रार्थना की कि हे ईश्वर आप ही कुछ ऐसा चमत्कार करो। इस नये भक्त पर दया-दृष्टि डालो ताकि यह नौबत न आए कि इस भक्ति की नौजवानी में ही यह भक्त बुढ़ापा को प्राप्त हो जाए। अब तो आपको मुझसे सहानुभूति होनी ही चाहिए। मुझे भी है क्योंकि भुगत चुका हूँ। अतः हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ कि प्रभु श्रीराम आपको टीवी से बख्शें।

 जय आस्तिकता की।

विश्वजीत 'सपन'

(प्रस्तुत लेख कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है और इसे बहुत अधिक सराहना मिल चुकी है. सर्वप्रथम यह नब्बे के दशक में छपी थी जब रामायण धारावाहिक चाल रहा था. दो वर्षों पहले पुन: इसके प्रकाशन की प्रार्थना आने के बाद इस लेख में थोड़ा-बहुत हेर-फेर करके वर्तमान हेतु तैयार किया गया है, एक और विशेष सूचना - ये तीनों रेखाचित्र मेरे द्वारा बनाये गए है. मुझे चित्रकारी का शौक़ बचपन से रहा है.)

2 comments:

  1. आपका संमरण और हिम्मत कबीले तारीफ है अश्तिकता में आपका विश्वाश कायम रहे और हमेशा दूसरों को अपने विचारो से सही मार्ग दर्शन करते रहे धन्यवाद

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  2. हौसलाअफजाई के लिए धन्यवाद दत्ता जी.

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