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Sunday 8 December 2013

लघु कथा - धर्म का वास्तविक अर्थ

प्राचीन काल की बात है। वे एक धर्मात्मा राजा हुआ करते थे धर्म के बारे में चिंतित रहते थे। एक दिन राजा ने अपने राज्य के सभी धर्मात्माओं को बुलाकर कहा - "आप सब लोग अपने-अपने धर्म के बारे में बताएँ, ताकि उनमें से किसी एक का मैं चयन कर सकूँ और अपना सकूँ, जो सर्वश्रेष्ठ होगा।"

अधिकतर धर्मात्माओं ने अपने-अपने धर्म की विस्तृत व्याख्या की और राजा से उस धर्म को अपनाने का आग्रह किया। राजा ने सबकी बात सुनी और उन एक धर्मात्मा की ओर देखा जिन्होंने अभी तक कुछ भी नहीं बताया था
। राजा का आशय समझ कर वह धर्मात्मा बोला - "महाराज, मैं कल अपने धर्म की बात नदी के उस पार जाकर आपको बताऊँगा।"

राजा ने दूसरे दिन एक से बढ़कर एक नाव की व्यवस्था करवाई। सभी सुख-सुविधाओं से लैश थे और धर्मात्मा एवं राजा दोनों के अनुकूल थे
। वे धर्मात्मा एक-एक कर सभी नावों में गए किन्तु नदी के उस पार जाने को तैयार नहीं हुए
। राजा को कुछ भी समझ नहीं आया और वे बार-बार आग्रह करते रहे, किन्तु उस धर्मात्मा ने उन नावों से चलने को मना कर दिया। अंत में राजा कुपित हो उठे और बोले - "महात्मन, यह क्या आप जब किसी भी नाव से जाना ही नहीं चाहते तो आपने नाव मँगाई ही क्यों?"

तब वह महात्मा बोले - "राजन, यह सत्य है कि इनमें से सभी नाव हमें नदी के उस पार ही ले जायेंगे, ठीक इसी प्रकार सभी धर्म हमें मानवता रुपी नदी को पार करवाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी धर्मों का सार एक ही है।"

तब राजा को समझ आया कि धर्म का वास्तविक अर्थ क्या है।

========================================== ==प्रस्तुति
                                                                                                                                  विश्वजीत 'सपन'

Tuesday 30 July 2013

कहानी संग्रह "अतीत का दमन" की समीक्षा

"हिंदी संवाद सेतु पत्रिका" नामक त्रैमासिक पत्रिका में वरिष्ठ साहित्यकार श्री शशि नारायण 'स्वाधीन' के द्वारा मेरी पुस्तक "अतीत का दामन" (कहानी संग्रह) की समीक्षा




Monday 3 June 2013

मृत्यु के बाद का सच और भ्रम (आलेख)

मृत्यु अटल है। गीता में कहा गया है कि जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु अनिवार्य है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म लेना अनिवार्य है। इसी कारण से मृत्यु एवं उसके बाद के बारे में हमारी उत्सुकता हमेशा से बनी रही है। मृत्यु के बाद क्या होता है? हम कहाँ जाते हैं? कहीं जाते भी हैं या नहीं? क्या मृत्यु के बाद कोई अन्य जीवन है? यदि हाँ तो वह क्या है और यदि नहीं तो फिर मृत्यु के उपरान्त आत्मा का क्या होता है? ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मनीषियों ने सदियों से प्रयास किए हैं और आज भी प्रयास किए जा रहे हैं। किन्तु सबसे पहले हमें यह जानने की आवश्यकता है कि मृत्यु क्या है।

मृत्यु को परिभाषित करना एक चुनौती रही है और आज के इस वैज्ञानिक युग में इसकी परिभाषा और भी जटिल हो गई है। वस्तुतः एक सामान्य प्रकार से देखें तो जब जीवन का अंत हो जाता है तो उसे मृत्यु कहते हैं। किन्तु मृत्यु कब होती है इसके बारे में जानने के लिए अवधारणात्मक रूप में हमें जीवन एवं मृत्यु के मध्य में एक रेखा खींचने की आवश्यकता है क्योंकि हम जीवन को चेतना से परिभाषित कर सकते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जब कोई जीव चेतना-शून्य हो जाता है तो वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसके बावजूद इसे भी पूर्ण निरपवाद परिभाषा नहीं कह सकते क्योंकि कई ऐसे एकल-ऊतकीय प्राणी हैं, जो संभवतः जीवित हैं, किन्तु उनमें चेतना नहीं देखी गई है। फिर चेतना स्वयं ही अनेक प्रकार से परिभाषित की गई है और अनेक समाजशास्त्रियों एवं दार्शनिकों में इसकी परिभाषा को लेकर मतभेद है। स्वास्थ्य विज्ञान में इसकी परिभाषा और भी जटिल हो गई है क्योंकि चेतना, अर्द्ध-चेतना, सुसुप्तावस्था, मस्तिष्क मृत्यु (ब्रेन डेथ) या जीव-वैज्ञानिक मृत्यु आदि अनेक परिभाषाओं ने अपने स्थान बना लिए हैं। कई संस्कृतियों में तो मृत्यु को एक घटना के बजाय एक प्रक्रिया माना गया है जिसका अर्थ होता है एक आध्यात्मिक स्तर से दूसरे आध्यात्मिक स्तर की ओर प्रस्थान करना।


 सन् 1991 में अटलांटा के एक निवासी पैम रेनाल्ड को मृत्यु का आभासित अनुभव प्राप्त हुआ। उन्हें मस्तिष्क की ऐसी बीमारी थी कि चिकित्सकों को शल्य चिकित्सा करने के लिए उनके मस्तिष्क के समस्त रक्त को बाहर निकालना था। इस प्रकार रेनाल्ड को पूरे पैंतालीस मिनटों तक मस्तिष्कीय रूप से मृत रखा गया। जब उन्हें पुनः जीवनदान दिया गया तो उन्होंने मृत्यु की अवस्था के अनुभवों को बताया। उन्होंने यह भी बताया कि उस अवस्था में उन्होंने अपने मृत संबंधियों से बातें कीं। इस प्रकार एक तथ्य जो सामने उभरकर आया कि मृत्यु के बाद भी कोई जीवन है, जिसके बारे में हम नहीं जानते हैं। समस्त प्रकार के ग्रंथों में इसके वर्णन किए गए हैं, किन्तु उस जीवन में प्रवेश करने वालों ने इसके बारे में बहुत ही कम बताया है। इसके बावजूद इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि ऐसा अनुभव भी बहुत ही कम लोगों को हुआ है या होता है। अनेक शोध करने के बाद भी यह नहीं साबित किया जा सका है कि जो कोई भी इस अवस्था में जाता है उसे मृत्यु के निकट जाने का अनुभव प्राप्त होता है। वास्तव में इनका प्रतिशत बहुत कम रहा है। तो क्या यह केवल एक विशेष प्रकार के लोगों के लिए ही है अथवा इससे भी बड़ा कोई सच है जो हमसे अभी भी परे है?


हमारी पौराणिक व्याख्या कहती है कि जब हम मृत्यु को प्राप्त करते हैं तो हमारा देह भूलोक पर ही रह जाता है, किन्तु प्राणशक्ति ब्रह्माण्ड में एक ऊर्जा के रूप में चली जाती है और वह अपने कर्मों के अनुसार स्वर्गलोक, भूलोक अथवा नरक में जाती है। इस तरह तीन प्रकार की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। यदि आप पूर्णतः आध्यात्मिक हैं, आपने स्वयं के अहं का त्याग कर जीवन यापन किया है और आप सांसारिक मोह-माया से दूर रहे हैं तो आपको स्वर्ग की प्राप्ति होती है, जिसके बाद आपको पुनः जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। किन्तु यदि आपके कर्म ऐसे नहीं होते हैं तो आपको पुनः भूलोक पर जन्म लेकर पुनः अपने कर्मों को सुधारने का अवसर प्रदान किया जाता है। किन्तु जो दुष्कर्मी या पापी होते हैं उन्हें नरक के दण्ड भुगतने पड़ते हैं। हम इस तथ्य से परिचित हैं कि हमारे शरीर में तीन गुणों का समावेश होता है - सत्त्व, रज और तम। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हम इन तीन गुणों में से जिसे अपना कर अपना जीवन यापन करते हैं, उसी के अनुसार मृत्यु के बाद हमारे जीवन की संभावना होती है। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि मृत्यु के समय हमारी मानसिक अवस्था एवं मानसिकता का भी अत्यधिक महत्त्व होता है। जैसे यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के समय ईश्वर की आराधना करता है, प्रभु को स्मरण करता है तो उसके स्वर्ग लोक में जाने की संभावना बढ़ जाती है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि पापी को भी स्वर्ग लोक की प्राप्ति हो जाएगी क्योंकि मृत्यु के समय उसने ईश्वर के नाम का जाप किया था। कहने का तात्पर्य यह है कि यह अवश्य ही कुछ सहायक होता है, किन्तु कर्म ही निर्णायक होते हैं। लगभग सभी प्रकार के धर्मों में कुछ इसी प्रकार की मिलती-जुलती व्याख्याएँ प्राप्त होती हैं। 


एक कहानी के माध्यम से इस तथ्य को बताया जा सकता है कि मनुष्य की आस्था किस प्रकार मृत्यु के बाद के जीवन को मानता रहा है। एक बार की बात है एक रोगी मरणासन्न अवस्था में अस्पताल लाया गया। चिकित्सकों ने उपचार कर उसे होश में ला दिया। लेकिन वह रोगी अभी भी इस बात से निश्चिंत नहीं हुआ था कि वह जी पाएगा। उसने चिकित्सक से कहा - ‘मैं मरना नहीं चाहता।’ 

चिकित्सक ने उसे ढाढस बँधाया तो उसने पूछा - ‘क्या आप बता सकते हैं कि दूसरी ओर क्या है?’


चिकित्सक ने कहा - ‘मुझे नहीं मालूम।’


तब उस रोगी ने कहा कि तुम आस्तिक हो और इतना भी नहीं जानते कि दूसरी ओर क्या है। क्या तुम जानते हो कि उस दरवाजे के दूसरी ओर क्या है?’ उस चिकित्सक का हाथ दरवाजे की कुंडी पर हाथ रखा हुआ था, जिसे देखकर उस रोगी ने पूछा। तब चिकित्सक ने कहा कि वह नहीं जानता है कि उस दरवाजे के बाहर क्या है। बाहर से खरोचने की आवाजें आ रही थीं और जैसे ही उस चिकित्सक ने दरवाजा खोला तो एक कुत्ता तेजी से अन्दर घुसा और उस रोगी के बिस्तर पर चढ़कर उसे चाटने लगा।


उसके बाद उस रोगी ने चिकित्सक से कहा - ‘क्या तुमने मेरे कुत्ते की एक बात पर ध्यान दिया। उसने कभी भी इस कमरे को नहीं देखा था। वह यह भी नहीं जानता था कि इसमें क्या था। वह केवल इतना ही जानता था कि उसका मालिक यहाँ है। जब दरवाजा खुला तो वह बिना किसी भय के अन्दर उछल कर आ गया। मृत्यु के बाद के बारे में मुझे बहुत ही कम पता है, लेकिन मुझे इतना पता है कि मेरा मालिक वहाँ है और मेरे लिए इतना जानना ही बहुत है।’


इस कथा से इस बात का प्रमाण मिलता है कि इस बात में हमारी आस्था है कि मृत्यु के बाद जीवन होता है, चाहे हमें उसके बारे में कुछ भी पता न हो। और आस्था बड़ी शक्तिशाली होती है।


इसी कड़ी में मान्यताओं को देखें तो पुनर्जन्म की बात को भी कई बार माना गया है। अपने पुराने जीवन की बातों को याद करते हुए भी कई व्यक्ति इसका दावा कर चुके हैं। विशेषकर हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख आदि धर्मों में इसकी मान्यता रही है। कहते हैं कि यदि इंसान की इच्छाएँ पूरी नहीं होती हैं तो वह पुनः जन्म लेने के लिए बाध्य होता है। इस तथ्य को एक कथा के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।

एक बार की बात है। धरती पर एक वृद्ध दंपत्ति रहते थे। वे अत्यंत दुःखी थे। उनकी इस स्थिति को देखकर माता पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि उनको मुक्ति दे दें। तब भगवान् शिव ने कहा कि ऐसा संभव नहीं है क्योंकि वह दंपत्ति अभी भी इच्छा-मुक्त नहीं हुई है। किन्तु माता पार्वती के बार-बार अनुरोध करने पर भगवान् शिव ने उस दंपत्ति को दर्शन दिया और पूछा - ‘बोलो, तुम्हें क्या वरदान दूँ?’

 वृद्धा ने तत्काल कहा कि उसे सोलह साल की एक सुन्दर युवति बना दें। भगवान् शिव ने तथास्तु कहकर यह वरदान दे दिया और वह वृद्धा एक सुन्दर स्त्री में परिवर्तित हो गई।

इस पर उस वृद्ध ने कहा - ‘मैं जानता था कि तुम मुझे कभी भी प्रेम नहीं करती थी। तुम हमेशा मुझे त्यागने का विचार करती रही थी। इसलिए तुम एक सुन्दर स्त्री बनना चाहती थी।’

उस स्त्री ने कहा - ‘तुम्हें भी एक वर माँगने का अधिकार है, तुम भी अपना मनचाहा वरदान माँग लो।’


तब उस वृद्ध ने भगवान् शिव से वरदान के रूप में उस स्त्री को एक पशु बना देने का वरदान माँगा। यह देखकर उसके पुत्र को बहुत कष्ट हुआ और उसने भगवान् शिव से वरदान माँगा कि उन्हें पुनः पहले जैसा कर दें।


तब भगवान् शिव ने पार्वती को इसके संदर्भ में बताते हुए कहा कि जब इंसान की इच्छाओं का अंत नहीं होता है तो उन्हें मुक्ति नहीं मिल पाती है। वृद्धावस्था के कारण यदि नश्वर शरीर नष्ट भी हो जाता है, तब भी उसे पुनः जन्म लेकर उन इच्छाओं की पूर्ति करने की आवश्यकता होती है।

 
इस पर कई विचारकों ने अपने-अपने मत दिए हैं। एक ने तो यहाँ तक कहा कि मृत्यु के बाद जीवन है और नरक नाम की कोई वस्तु नहीं है। तब सबकुछ सुन्दर होता है। हम केवल स्वर्ग में ही जाते हैं क्योंकि तब हम सभी प्रकार की मोह-माया से छुटकारा पाकर एक अन्य जीवन में प्रवेश करते हैं। वहाँ हम कुछ लेकर नहीं जाते और केवल हमारी आत्मा ही जाती है, जो नश्वर नहीं है। एक गुरु ने कहा कि तुम मृत्यु के बारे में क्यों सोचते हो? यह उचित नहीं है। ईश्वर ने हमें जीवन दिया है और हमें उस जीवन का भरपूर आनंद उठाना चाहिए। अच्छे कर्म करने चाहिए और लोगों का भला करना चाहिए। 

                                                                विश्वजीत 'सपन' 03.06.2013  
(प्रिय मित्रों, यह आलेख VL Media Solution, Delhi, Lucknow से प्रकाशित "आनंद" पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)

Sunday 19 May 2013

“अंतरजाल और साहित्य का स्तर”



पाँच बिंदु साहित्य जगत के लिए

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यह विषय आज बहुत प्रासंगिक है। इस विषय पर चर्चा आम बात है, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या हम केवल चर्चा ही करते हैं अथवा इस चर्चा का कुछ लाभ भी उठाते हैं? खैर, यह तो पूर्णत: व्यक्तिगत है, अत: इस विषय पर अधिक बात न कर कुछ इससे जुड़ी कुछ बातें आपके समक्ष रखना चाहता हूँ।


१)      अंतरजाल एक व्यापक माध्यम है जो छपने वाली विधा के मुकाबले बहुत असरकारी सिद्ध हो सकता है। यह माध्यम देश-विदेश की सीमा को क्षण भर में ही पार कर सकता है। अत: इसके महत्त्व को कम करके आँकना हमारी भूल होगी। इस माध्यम से हमारी पहुँच बहुत कम समय में बहुत अधिक लोगों तक हो सकती है। साथ ही यह संकलन का भी एक बहुत ही सस्ता और सुन्दर साधन है, जिसका उपयोग किया जा सकता है, बल्कि हो भी रहा है, किन्तु वह किस प्रकार का है और उसमें कितनी प्रमाणिकता है इस विषय पर विवाद हो सकता है।


२)      इस माध्यम में साहित्य के स्तर को ऊँचा बनाए रखने की एक बड़ी चुनौती है। यहाँ कोई भी कुछ भी लिखकर साहित्यकार बन सकता है और साहित्य को पतन के गर्त में धकेल सकता है। अत: आवश्यकता है कि इसके स्तर को बनाए रखने हेतु प्रयास होना चाहिए। यह कठिन सत्य है, किन्तु इसे नज़रंदाज़ करना एक बहुत बड़ी भूल होगी। इस कड़ी में ब्लॉग, फेसबुक, वेबसाईट आदि माध्यमों को देखा जा सकता है, जहाँ स्तरहीन रचनाओं एवं रचनाकारों की भरमार है। कई तो ऐसे भी हैं जिन्हें शुद्ध हिंदी लिखना भी नहीं आता है। ऐसे में यह चुनौती है कि हम साहित्य आखिर कहें किसे? यदि यही परोसा गया तो कल जो भी देखेगा उसे पता ही नहीं होगा कि असली साहित्य होता क्या है।


३)      प्रयास चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, वह कुछ न कुछ परिणाम अवश्य देता है। बूँद-बूँद से सागर बनता है और यदि हम इस कहावत को चरितार्थ करें तो हमारा प्रयास भी इतिहास का एक हिस्सा बन सकता है। और इसलिए मेरा प्रयास है कि इस ब्लॉग के जरिये आप लोगों तक इस बात को पहुँचाया जाये कि कुछ भी ऊल-जलूल अथवा कचरा साहित्य नहीं होता है।


रचना के बारे में, विशेषकर कविता या पद्य के बारे में मुझे एक वार्ता याद आती है। मेरे एक मित्र से यूँ ही चर्चा चली थी कि आज यह फेसबुक पर अनधिकार साहित्य का प्रचलन युवा साहित्य प्रेमियों के मन पर बुरा प्रभाव डाल रहा है और उन्हें साहित्य के एक अनजान रास्ते पर ले जाकर भटका रहा है। तो उनका कहना था कि कविता आज ऐसे दौर में है कि वह गद्य होकर भी पद्य के समान होती है, किन्तु कविता की बुराई हो ही नहीं सकती। इसका कारण यह है कि कहीं न कहीं कुछ भाव पक्ष तो होता ही है और इसलिए कुछ अच्छी बातें तो होती ही है चाहे शिल्प न हो।


इस बात से मुझे लगा कि आज हमने सबकुछ स्वीकार कर लिया है। भाव के बिना कुछ लिखा ही नहीं जा सकता और भाव ढूँढा भी जा सकता है, जिसका सीधा अर्थ है कि कुछ भी लिख देना काव्य है। जबकि यह सत्य नहीं है। काव्य का एक निश्चित स्वरुप होता है और निश्चित शिल्प भी होता है। शिल्प के बिना कोई कविता ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार सोलह श्रृंगार के बिना नारी। (वैसे यह उपमा भी सही नहीं है। किन्तु मैंने मात्र इसलिए कहा है ताकि आसानी से समझा जा सके।) बिना स्वरुप के किसी रचना का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। इसलिए यह चुनौती बड़ी है और साहित्यकारों को इस पर विशेष ध्यान देना होगा क्योंकि अंतरजाल पर बहुत से प्रकाशक व्यापार खोलकर बैठ चुके हैं, जो पैसों के लिए नवोदितों को यह कहकर लुभा रहे हैं कि वे युवा लेखकों को अवसर दे रहे हैं, जबकि वे साहित्य के नाम पर कूड़ा जमाकर एक पुस्तक बना कर बाज़ार में भेज रहे हैं जिसमें साहित्य नहीं है। किन्तु प्रश्न केवल यह नहीं है कि वह साहित्य है अथवा नहीं बल्कि प्रश्न यह है कल ये ही पुस्तक प्रामाणिक बन जायेंगीं क्योंकि ये छपी हुई पुस्तकें होंगीं जो पैसे कमाने के लिए छापी गई हैं न कि ये कोई साहित्यिक कृतियाँ हैं। यह भविष्य के लिए एक खतरा और साहित्य के लिए खतरे की घंटी है।


४)      इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि लेखन उद्देश्यविहीन नहीं होना चाहिए। साहित्य के इतिहास को उठाकर देखें तो साहित्य कभी भी उद्देश्य रहित नहीं रहा है। आज इस बात की आवश्यकता है कि मात्र चंद पल की ख़ुशी अथवा मुस्कान के लिए फटीचर काव्य रचना कहाँ तक उचित है। आज हर व्यक्ति व्यवस्था पर व्यंग-बाण छोड़ता प्रतीत होता है क्योंकि यह पाठकों को श्रवणीय लगता है। नारी पर लेख ऐसे लिखे जाते हैं जैसे नारी का कोई सम्मान नहीं बचा है (यहाँ यह कहना उचित होगा कि दो-चार घटनाओं को लेकर भड़ास निकालने से मेरा तात्पर्य है, इसे गलत दृष्टिकोण से न समझा जाये।)। प्रेम और मनुहार के काव्य अपनी अनुभूतियों को लिखने का माध्यम बन गया है। अनेक प्रकार के ऐसे विषय हैं, जिन पर बिना उचित विवेचन के और बिना भविष्य के बारे में सोचे लिखा जा रहा है। तो भविष्य क्या समझने वाला है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। आज हम जिस काव्य का पठन करते हैं जैसे महाभारत, रामायण, गीता, हितोपदेश, पंचतंत्र, रामचरित मानस आदि वह हमें उस काल के बारे में बताता है। कल जब हम नहीं होंगे तो यह हमारे बारे में भी उसी प्रकार बतायेगा। यह प्रश्न काव्य सृजन से पूर्व का है कि यह न केवल समाज का दर्पण होना चाहिए बल्कि एक सुन्दर सीख का भी ताकि समाज उस पर चलने को प्रेरित हो सके।


इसके लिए हमें एकजुट होकर इस अभियान को सफल बनाने का प्रयास करना होगा। मनुष्य को जीवन मात्र एक बार प्राप्त होता है। उसे एक उद्देश्य के साथ जीने का प्रयास करना उसका अपना दायित्व है। वह चाहे तो उद्देश्यविहीन जीवन भी जी सकता है, जो करोड़ों लोग करते हैं और कर रहे हैं। किन्तु यह नहीं होना चाहिए। यदि साहित्य सेवा कर जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाना है तो निर्णय लेना होगा और आज ही इसी समय कि हम अपना जीवन साहित्य की सेवा में अर्पित करते हैं और समाज को एक सही दिशा देने का प्रयास करते हैं। यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रयास मात्र प्रयास होता है, छोटा अथवा बड़ा नहीं। यदि हमें यह प्रयास करना है तो क्षणिक लोभ से हमें संवरण करना होगा। सत्य को सत्य और असत्य को असत्य कहना होगा।
  

५)      आज अंतरजाल पर अनधिकार साहित्य और साहित्यकारों की बाढ़ मौजूद है। बहुत से अनावश्यक वेबसाईट और ब्लॉग आदि है। कई असाहित्य की श्रेणी हैं तो कई अत्यधिक भ्रामक और अनावश्यक। हम चाहे तो भीड़ का हिस्सा बनकर इनका रसास्वादन कर सकते हैं, किन्तु “एकला चलो रे” की भाँति हम एक नयी राह भी बना सकते हैं। फैसला हमें करना होगा। इस बात को समझना होगा कि क्या प्रामाणिक है और क्या नहीं है? ब्लॉग पर अथवा वेबसाईट पर मंतव्य व्यक्ति का अपना होता है, किन्तु वह मंतव्य प्रामाणिक है अथवा नहीं यह हमें स्वयं निर्णय लेना होगा और यदि हम जल्दबाजी में बिना देखे और समझे अनुसरण करते हैं तो एक भ्रामक ज्ञान का हिस्सा बन जाते हैं और उसी को प्रामाणिक मानने पर विवश हो जाते हैं। यह भी देखना होगा कि कोई रचना या काव्य जो वहाँ उपलब्ध है, वह मौलिक है अथवा नहीं? क्या मात्र सस्ती लोकप्रियता के लिए लिखा गया है अथवा उसका उद्देश्य पवित्र है? इस ओर हमारी दृष्टि सचेत होनी चाहिए। और हमें इस प्रामाणिकता का हिस्सा भी बनना होगा क्योंकि यह हमारा कर्तव्य है और यही उचित भी है। अनावश्यक कारणों को गिनाकर, झूठी तसल्ली पाकर और भ्रमित कर यदि हम किसी उत्तम कार्य में योगदान से हिचकते हैं तो यह कभी हमारा भला नहीं कर सकता। हमें समझना होगा कि ऐसा करके हम स्वयं से छल कर रहे हैं।



सादर नमन

विश्वजीत ‘सपन’                                                       19.05.2013

Sunday 3 February 2013

IPS officers to tackle threats the English way

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http://www.rakshakonline.com/2013/01/ips-officers-to-tackle-threats-the-english-way/



73 senior Indian Police Service (IPS) officers in the rank of deputy inspector general and inspector general have completed an eight-week course in strategic management in the UK this year to hone their policing skills to meet internal security challenges.
From the Andhra Pradesh cadre seven IPS officers participated in the management course. The officials are Harish Kumar Gupta, IGP – Legal; Kumar Vishwajeet, Director, ACB; Mahesh Bhagwat, Joint CP (Special Branch); Dr Shankha Brata Bagchi, DIG – CID; Anil Kumar, DIG – CID; V C Sajjanar, DIG – SIB and N Sanjay, Joint CP (Admin) – Hyderabad.
The course was organised by the University of Cambridge in collaboration with the OP Jindal Global University (JGU), Sonipat, as a part of the ‘Cambridge-Jindal IPS Training Programme’ that has trained nearly 500 senior IPS officers in less than three years.
“The training is aimed at enhancing the professional and leadership skills of our IPS officers by exposing them to the best international practices in the field of policing,” JGU vice-chancellor C Raj Kumar says. This was the fifth batch of this programme. The Ministry of Home Affairs had, in March 2010, awarded the contract for the training of IPS to the Cambridge University in partnership with the JGU.
Kumar said the teaching methodology of the intensive training programme with six weeks in India and two weeks in the UK provided opportunities for deep insights for senior officers to engage with researchers and experts in various fields relating to criminology, criminal justice and policing, including more nuanced aspects of practical policing.
Kumar said during the first six weeks of the training programme at the National Police Academy, Hyderabad, sole focus was on twice-daily lecture-workshop sessions, capped by weekly examinations and assessments. Each participant was required to prepare a “Strategic Leadership Case” presentation for an all-course competition.
The UK leg of the training programme began in the Greater Manchester with an interaction with Deputy Chief Constable, Ian Hopkins of the Greater Manchester Police (GMP).
During the first week in the UK, the officers interacted with senior officers of the GMP while observing the local policing routine and visiting various other divisions. The first week concluded with a discussion on the ‘Anuj Bidve murder case’ by Detective Chief Superintendent Mary Doyle.
The West Yorkshire Police (WYP) hosted the IPS officers for their second week of training during which they saw as many as 14 different major divisions of the WYP. The officers were awarded certificates at a ceremony held at the University of Cambridge.