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Saturday 30 August 2014

उचित और अनुचित कुछ नहीं होता


हम किसी घटना को किस प्रकार से देखते हैं, वह उचित एवं अनुचित का बोध कराता है। एक घटना को उचित अथवा अनुचित दृष्टि से देखना हमारी अपनी मानसिकता एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है। एक सामान्य सी घटना से इसे समझने का प्रयास करते हैं - एक व्यक्ति गंदी नाली की सफाई कर रहा था। उसके पास से अनेक प्रकार के मनुष्य आ-जा रहे थे। एक संभ्रान्त व्यक्ति बोला - "कितना अभागा इंसान है। मैं तो यह कार्य कभी नहीं करता।" वहीं से एक ऐसा व्यक्ति गुजरा, जिसके पास कोई काम नहीं था और पेट भरने के लिये पैसे भी नहीं थे। उसने कहा - "अरे, कितना भाग्यशाली व्यक्ति है। इसे यह काम मिल गया और मुझे कोई काम नहीं मिलता।"

सत्य यही है कि उचित अथवा अनुचित कुछ भी नहीं होता है। वस्तुतः जो भी होता है, वह उचित होता है। ईश्वर ने उसे उचित जानकर ही होने दिया है। यह तो हम मनुष्य में दोष है कि यदि वह हमारे भले के लिए नहीं होता तो हम उसे अनुचित मान लेते हैं। अनुचित कुछ भी नहीं होता है। वह अनुचित हमें प्रतीत होता है क्योंकि हमारे मन-मुताबिक नहीं होता है। हमारा नजरिया ठीक होना चाहिए, तब हमें अनुचित कुछ भी नहीं लगता। शीर्षासन करते समय जगत को उल्टा देख लेने से जगत उल्टा नहीं होता बल्कि हमें वैसा दिखाई देता है।

हमें सत्य समझने का प्रयास करना चाहिए। यही ईश्वर की इच्छा है। यही उचित है। ईश्वर कभी अनुचित कार्य नहीं करता है और न ही होने देता है। असल में जो होता है, वही होना था, अतः वह होता है। इसमें चाहे हमारे अपने कर्म के दोष हों अथवा मन के, निर्णय परमपिता करता है। यहाँ कुछ व्यक्ति विवाद करते हैं कि तब तो अनुचित कार्य भी उचित ही होना चाहिए, जबकि ऐसा नहीं है। किसी को हानि पहुँचाना, किसी की निंदा करना आदि कार्य अनुचित अवश्य होते हैं, अतः इसे भ्रम के रूप में उचित सोच लेना पुनः हमारी अपनी मानसिकता का ही परिचायक है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी घटना अथवा कर्म अथवा कार्य को सकारात्मक एवं शुद्ध दृष्टि से देखना ही ईश्वर की इच्छा है। यही जीवन को सही ढंग से जीने का असली माध्यम है।


                                                                                  विश्वजीत ‘सपन’

Friday 1 August 2014

ईद उल-फ़ित्र


इस त्योहार के बारे में जानने से पहले इस्लाम का वह संदेश जो नबी (हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा) ने अपने अंतिम हज के बाद दिया था - ‘आज अहदे जाहीलियत (अज्ञानता काल) के तमाम दस्तूर और तौर-तरीक़े ख़त्म कर दिए गए। ख़ुदा एक है और तमाम इंसान आदम की औलाद हैं और वे सब बराबर हैं। अरबी को अजमी (ग़ैर-अरबी) पर और अजमी को अरबी परए काले को गोरे पर और गोरे को काले पर कोई फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) नहीं। अगर किसी को बड़ाई है तो नेक काम की वजह से है। तमाम ईमानवाले भाई-भाई हैं।’

    कहते हैं कि पहला ईद उल-फ़ित्र का त्योहार मुहम्मद साहब ने 624 ईसवीं में जंग-ए-बदर के बाद मनाया था। इस्लाम में दो प्रकार की ईद मनाये जाने की प्रथा है - ईद उल फ़ित्र और ईद उल जुहा। इस्लामी कैलेण्डर चाँद के हिसाब से चलता है और हिजरी के नौवें महीने में रमज़ान मनाने की प्रथा है। ‘रमज़ान’ शब्द ‘रमज़’ धातु से बना है, जिसका भावार्थ है - तपिश, गरमी। ऐसा अनुमान है कि जब महीनों के नाम निश्चित किए गए होंगे तो यह महीना सख़्त गरमी का रहा होगा।

    नियम के अनुसार इस महीने सभी मुसलमानों को पूरे महीने रोज़ा (व्रत) रखना अनिवार्य है और यह उसका फ़र्ज है। महीने में दिनभर उपवास रखा जाता है। इस महीने का उल्लेख कुरआन में कई जगह आया है। यह वही महीना है, जिसमें कुरआन का अवतरण हुआ था। इसी रमज़ान के महीने के बाद दसवें महीने के पहले दिन ईद उल फ़ित्र मनाया जाता है। अंतिम रात को जब चाँद डूबता है और ईद के चाँद का अवतरण होता है तो ईद मनायी जाती है। यह एक ऐसी रात मानी गई है जो हज़ारों रातों से उत्तम और श्रेष्ठ है।

    रोज़ा का अर्थ व्रत है। कुरआन में इसके लिए ‘सियाम’ शब्द आया है, जिसका मौलिक अर्थ रुक जाना होता है। इस प्रकार रोज़ा रखने का अर्थ हुआ कि आदमी सुबह पौ फटने से लेकर सूर्यास्त तक खाने-पीने और काम-वासना की पूर्ति से रुका रहता है। ऐसा माना गया है कि आत्मा की शुद्धता और आत्मिक विकास के लिए रोज़ा रखना आवश्यक है। इस व्रत से व्यक्ति में संयम उत्पन्न होता है और वह ईशपरायण बन जाता है। उसका विश्वास अल्लाह में हो जाता है और बढ़ जाता है। इस दौरान मुसलमानों का फ़र्ज है कि वे इस दौरान कोई ग़लत काम न करें और जितना संभव हो दूसरों की मदद करें। यदि कभी कोई नेक काम करने का अवसर मिले तो उस अवसर को जाने न दे। 

    पूरे विश्व में यह ईद हर्षोल्लास से मनाई जाती है और इसे भाईचारा बढ़ाने वाले त्योहार के रूप में देखा जाता है। इस त्योहार में सभी मुसलमान ख़ुदा से सुख-शांति और बरकत की दुआ माँगते हैं। साथ ही ख़ुदा का शुक्रिया भी अदा करते हैं कि उन्होंने एक महीने उपवास रखने की शक्ति दी। इस दिन नये कपड़े पहने जाते हैं और मस्जिद में जाकर इबादत (पूजा) करते हैं। इस दिन मुसलमानों के लिए ज़कात उल फ़ित्र यानी दान देना भी फ़र्ज है। यह दान ग़रीबों में बाँट दिया जाता है। कहते हैं कि कम से कम दो किलो का दान करना ही चाहिये। इस महीने आपसी मतभेद एवं झगड़ों को भी निपटाया जाता है। इस पवित्र महीने में मन में कोई पाप भी नहीं आना चाहिए ऐसा आदेश है। सभी लोग परिवार एवं दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान भी करते हैं और नमाज़ (सलात) के बाद एक-दूसरे से गले मिलकर ईद की मुबारकबाद देते हैं। इस दिन सिवैयाँ इस त्योहार का एक विशेष खाद्य पदार्थ है।
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विश्वजीत 'सपन'