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Thursday 22 January 2015

जीवन में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं


स्वार्थ और स्वार्थ और स्वार्थ। जीवन क्या केवल इसी स्वार्थ का नाम है? बिना बात के हम तर्क देकर अपनी स्वार्थसिद्धि में लगे रहते हैं। क्या यही जीवन है या फिर इससे भी अधिक कुछ है? मनुष्य का जीवन ब्रह्माण्ड के जीवन में कुछ अंश के बराबर होता है। वह इतना छोटा अंश होता है कि इसे लगभग शून्य के बराबर माना जाता है। कुछ वर्ष अर्थात् अधिक से अधिक सौ-सवा सौ वर्ष। इतने कम समय में भी हम कुछ अच्छा करने और दूसरों के लिये जीने की इच्छा नहीं कर सकते? जीवन तो कुत्ते-बिल्ली एवं पशु-पक्षी भी जाते हैं। उनमें एवं मानव में कुछ अंतर होने के कारण ही मानव का जीवन प्राप्त हुआ है।

    मानव का जीवन बार-बार नहीं मिलता। कहते हैं कि योनियाँ बदलती रहती हैं। आज मानव तो कल पशु-पक्षी किसी भी योनि में जन्म होता रहता है। इस जीवन को क्या केवल अपने स्वार्थ के लिये खर्च कर देना ही मानव-जीवन का असली उद्देश्य हो? स्वार्थसिद्धि के लिये अनेक प्रकार के बहाने बनाये जाते हैं और बनाये जाते रहेंगे। इसकी पहचान स्वयं करनी होती है। इससे छुटकारा भी अपनी सोच एवं आत्मबल से संभव होता है। 


    सर्वप्रथम हमें यह सोचना है कि हम स्वार्थ के वशीभूत होकर अपना मुँह मीठा करने की तलाश में नाहक ही जीवन को अनावश्यक व्यय कर रहे हैं। छोटी-छोटी सहायता कभी किसी को अंतहीन सुख प्रदान कर सकता है और उसका अलौकिक सुख आपके लिये भी अंतहीन होता है क्योंकि सबसे बड़ा सुख जीवन को वास्तविकता में जीने में है, न कि भ्रम में पड़कर दुःख भोगने में। सुख एवं दुःख को पहचान कर असली सुख के लिये जो जीता है, वही ईश्वर की दृष्टि में मनुष्य कहलाता है और जो मनुष्य कहलाता है, वही जीवन एवं उसके पश्चात् के जीवन में सुखी रहता है।


    हमें स्वयं की एवं जीवन की पहचान करनी है। क्या हमारी पहचान स्वार्थ लोलुपता के अलावा कुछ है अथवा नहीं? क्या हम कभी दूसरे के लिये जीने का प्रयास करते भी हैं अथवा नहीं? क्या जीवन को अनावश्यक व्यय कर देना ही मेरा अंतिम लक्ष्य है? क्या हम अच्छे एवं मीठे बोलों से लोगों के दिलों को कोमलता से स्पर्श करते हैं? क्या हम किसी की भलाई के लिये चंद बोल कहते हैं अथवा अपने ही मद में चूर रहते हैं? क्या हम केवल अपने लिये ही जीते हैं? क्या हम दिखावे के लिये अपनी बातों के प्रयोग करते हैं? क्या हमें जीवन का असली उद्देश्य पता भी है? क्या किसी की सहायता करने के बजाय हम बहाने तलाशते रहते हैं? हम क्या हैं? क्या हमारा अस्तित्व उस परम सत्ता का दिया हुआ प्रसाद नहीं है? उस परम सत्ता को कौन छलावे में रख सकता है? वह सब-कुछ जानता है और यह भी जानता है कि मेरे दिल में क्या है? ऐसे अनेक प्रश्न आज मेरे समक्ष खड़े होकर मुझसे बातें कर रहे हैं। मैं इनके उत्तर ढूँढने के प्रयास में लगा हूँ। 


    एक अंतिम प्रश्न क्या हम सभी को इन प्रश्नों के उत्तर नहीं ढूँढने चाहिये।

सपन