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Tuesday 23 June 2015

लघुकथा

उसकी आँखों का दर्द

मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, जब उसने मेरी ओर मुड़कर नहीं देखा। झुंझलाहट में मैंने पैर पटके और लोकल ट्रेन के डिब्बे में चढ़ गया। मुझ पर झुँझलाहट इस भाँति हावी थी कि उस समय कोई भी कुछ कहता, तो संभवतः मैं झगड़ पड़ता। रास्ते भर उस घटना की सोच से उबर नहीं सका। घर पहुँचते ही अपनी पत्नी को सारी बातें बताई और अपने क्रोध को येन-केन-प्रकारेण शांत किया। शान्त मन आत्म-परीक्षण में सहायक होता है। तत्काल ही उसका निर्दोष मुखमण्डल मेरे समक्ष आ खड़ा हुआ।

‘बाबूजी, दो दिन से भूखा हूँ। एक दाना भी पेट में नहीं है।’ उसने गिड़गिड़ाकर मुझसे कहा था।


मुझे दया आ गई, परन्तु मैं अपनी आदर्शता से भटक न पाया। मैंने कभी यह निश्चय किया था कि किसी भी भिखारी को कभी पैसे नहीं दूँगा, बल्कि कुछ काम दूँगा और उस काम के बदले उसका मेहनताना उसे दूँगा।


‘काम करोगे?’ पूछा था मैंने।


‘कैसा काम?’ उसका मासूम चेहरा उतर गया।


‘काम के बदले, पैसे मिलेंगे। ऐसे नहीं।’ मैं तटस्थ था। मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने के बाद उसका रहा-सहा उत्साह भी जाता रहा।


‘भीख क्यों माँगते हो? कुछ काम करो और अपनी मेहनत की कमाई खाओ।’ मेरे विचार को सुनकर वह बोला, ‘काम कौन देगा साहब? हम जैसों के लिये कोई काम नहीं होता।’


‘क्यों नहीं होता? चलो मेरे घर चलो। मेरे बगान में काम करो और दिन का पूरा मेहनताना लो, साथ में दो समय का खाना भी।’


उसने निराशा से मेरी ओर देखा। मैं अपने कथन पर अडिग था। वह कार्य नहीं करना चाहता था। उसके चेहरे से स्पष्ट था।


‘काम क्यों नहीं करना चाहते हो?’ पूछा मैंने, ‘काम तो पूजा है। कोई भी काम बुरा नहीं होता। यही समस्या है तुम लोगों की, भीख माँगने की लत-सी पड़ गई है। मुफ़्त में रोटी तोड़ने की आदत हो गई है। काम करो, पैसे पाओ और सिर उठाकर जीओ। इसमें क्या बुराई है?’


वह अब भी अविश्वास की दृष्टि से मुझे घूर रहा था। उसके मन में कोई बात अवश्य थी, जिसका उत्तर वह तलाश रहा था। मैं समझ गया कि वह काम करने को राजी नहीं होगा। अतः मैंने उसे जीवन के बारे में बहुत कुछ समझाया। पता नहीं उसे कितनी समझ आई, किन्तु मुझे लगा कि वह कुछ-कुछ विश्वास करने लगा था, किन्तु पूर्ण-विश्वास की कमी थी। मैं उस पर अपना क्रोध दिखाकर वहाँ से निकल पड़ा था।


दूसरे ही दिन मुझे मेरा मन भिन्ना गया। अखबार के प्रथम पृष्ठ पर ही एक ख़बर छपी थी कि एक व्यक्ति ने काम के बहाने अपने घर ले जाकर एक मासूम के साथ कुकर्म किया और उसे रात के अंधेरे में किसी अनजान स्थल पर छोड़ गया। पुलिस उस व्यक्ति की तलाश में है। शर्म से मेरा सिर झुक गया। मुझे अपने मानव होने पर ग्लानि होने लगी। उस मासूम की आँखों का दर्द मुझे स्वयं के दिल में महसूस हुआ। उसका अविश्वास सर्वथा उचित था। जब मानवीयता से विश्वास उठ जाये, तो किसी अनजान पर विश्वास कैसे होगा?


विश्वजीत ‘सपन’