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Friday 27 November 2015

नीति

लोभेश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः,
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं निजैः सुपहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः,
सद्-विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।नी.श. 54।।

 
अर्थात् यदि लोभ है, तो दुर्गुणों से क्या? यदि चुगलखोरी है तो पाप से क्या? यदि सत्य है तो तपस्या से क्या? यदि पवित्र मन है तो तीर्थों से क्या? यदि सज्जनता है तो आत्मीयों से क्या? यदि सुयश है तो आभूषणों से क्या? यदि श्रेष्ठ विद्या है तो धनों से क्या? यदि अपयश है तो मृत्यु से क्या?


तात्पर्य यह कि लोभ व्यक्ति का सबसे बड़ा दुर्गण है, यदि किसी व्यक्ति के पास यह दुर्गण है, तो फिर किसी अन्य दुर्गुण की आवश्यकता ही नहीं है। चुगलखोरी सबसे बड़ा पाप है। यह कोई करता है, तो उसे किसी दूसरे पाप करने की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई व्यक्ति सत्य बोलता है, तो उसे तपस्या की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि सत्य-वाचन सबसे बड़ी तपस्या है। यदि मन पवित्र है, तो तीर्थों की आवश्यकता नहीं, क्योंकि पवित्र-मन ही श्रेष्ठ तीर्थ है।


यदि कोई व्यक्ति सज्जन है, तो उसे आत्मीयों की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उसके स्वभाव के कारण सभी लोग उसके अपने हो जाते हैं। सुयश वाले व्यक्तियों को किसी आभूषण की कोई आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि सुकीर्ति ही सबसे बड़ा आभूषण है। विद्यावान् को धन की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि विद्याधनं सर्वधनं प्रधानम्। जिनके पास अपयश होता है, वह तो जीवित होते हुए भी मृत के समान ही होता है।

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