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Sunday 24 January 2016

भारतीय काव्यशास्त्र में रस

 
आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्य दर्पण’ में काव्य को परिभाषित किया है - ‘‘वाक्यं रसत्मकं काव्यम्’’ अर्थात् रसात्मक वाक्य ही काव्य है। काव्य के आस्वाद को ही रस कहते हैं। काव्य का आनन्द ही रस है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि किसी काव्य को पढ़ने, सुनने में अथवा नाटकादि को देखने से पाठक, श्रोता या दर्शक आदि को जो असाधारण और अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं।

    जब हम कभी रस का अर्थ ग्रहण करते हैं, जीवन के सामान्य प्रसंगों में तो प्रायः इसका अर्थ होता है - आनन्द, सुख। हम कहते सुनते हैं कि आज बड़ा रस आया, जब कभी कोई रमणीक स्थल आदि देखते हैं, कौतूहल वाली वस्तु देखते या पढ़ते हैं या चमत्कारपूर्ण बातों को देखते अथवा सुनते हैं। नाटक, सिनेमा आदि में भी रस होते हैं। पठन-पाठन में भी रस मिलता है।


भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से ही रस शब्द का प्रयोग होता रहा है। वैसे तो सोमरस के रूप में भी ‘रस’ का प्रयोग हुआ है, किन्तु इसका प्रयोग आनन्द के रूप में भी हुआ है। वह चाहे अलौकिक आनन्द हो अथवा आध्यात्मिक आनन्द। तैत्तिरीय उपनिषद् में रस का उल्लेख कुछ इस प्रकार से हुआ है - ‘‘रसौ वै सः रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।’’ अर्थात् रस वह ईश्वरीय अनुभूति है, जिसे प्राप्त करके आत्मा आनन्दी हो जाता है। साहित्य शास्त्र में रस के बारे में ऊपर कथन दिया गया है भरत मुनि का एवं आचार्य विश्वनाथ का। यदि हम देखें तो भारतीय साहित्य शास्त्र में काव्य का मूल प्रयोजन इसी रस-रूप आनन्द की प्राप्ति है। रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। इसे कुछ इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं कि किसी कविता, कहानी, उपन्यास आदि को पढ़ने-सुनने अथवा नाटकादि आदि के पढ़ने-सुनने से पाठक, श्रोता अथवा दर्शक को जिस चमत्कारपूर्ण असाधारण आनन्द की प्राप्ति होती है, उसे ही रस कहते हैं। 


     भरत मुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ ग्रन्थ में रस की विवेचना इस प्रकार की है - ‘‘विभावानुभाव व्यवभिचारि संयोगद्रसनिष्पत्तिः’’ अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यवभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। आचार्य विश्वनाथ ने चार प्रकार के भावों का उल्लेख किया और कहा - ‘‘विभावानुभावेन व्यक्तः संचारिणा तथा। रसतामेति रत्यादिः स्थायी भावः सचेतसाम्।।’’ अर्थात् सहृदयों के हृदय का स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है, तो रस-रूप में निष्पन्न हो जाता है।
प्राचीन जानकारी के अनुसार नौ स्थायी भाव हैं - रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, विस्मय और निर्वेद। इन्हीं स्थायी भावों के अनुसार नौ रस की निष्पत्ति हुई। कालान्तर में ‘वत्सल’ एवं ‘मधुर अथवा भक्ति’ नामक स्थायी भाव भी माने गये हैं। 


विभाव इन स्थायी भावों के कारण हैं। इन्हीं कारणों से ये स्थायी भाव जाग्रत होते हैं। विभाव के दो भेद होते हैं। आलम्बन और उद्दीपन।
आलम्बन विभाव वे कारण हैं, जैसे नाटकादि के वे पात्र जिन्हें देखकर अथवा पढ़कर किसी के हृदय में रति आदि स्थायी भाव रस-रूप में अभिव्यक्त होते हैं। इस आलम्बन विभाव के भी दो भेद होते हैं - विषय एवं आश्रय। जिस पात्र के प्रति किसी पात्र के भाव जागृत होते हैं, वह विषय है। जिसमें यह जागृत होता है, वह आश्रय है। जैसे पद्मावती को देखकर राजा उदयन के हृदय में रति भाव उत्पन्न होता है, तो पद्मावती विषय है, जबकि राजा उदयन आश्रय हैं। 


उद्दीपन विभाव स्थायी भावों को उद्दीप्त करके आस्वादन योग्य बनाते हैं। जैसे वीर रस के स्थायी भाव उत्साह के साथ सामने खड़ा शत्रु आलम्बन विभाव है, जबकि उसकी सेना, गर्जना, दर्पोक्ति आदि उद्दीपन विभाव हैं। इसके भी दो भेद होते हैं - आलम्बनगत या विषयगत एवं बाह्य या बहिर्गत। 


अनुभाव - रति आदि स्थायी भावों को व्यक्त करने वाली आश्रय की चेष्टायें अनुभाव कहलाती हैं। ये चेष्टायें भाव-जागृति के उपरान्त आश्रय में उत्पन्न होती हैं, अतः इन्हें अनुभाव कहा जाता है। विरह से व्याकुल नायक अथवा नायिका द्वारा सिसकियाँ भरना, क्रोध से कठोर वाणी बोलना, मिलन के भावावेश में आँसू, स्वेद निकलना आदि अनुभाव हैं। इसके चार भेद कहे गये हैं - (1) आंगिक (2) वाचिक (3) आहार्य एवं (4) सात्त्विक। इनमें सात्त्विक अनुभाव आठ माने गये हैं - (1) स्तम्भ (2) स्वेद (3) रोमांच (4) स्वरभंग (5) वेपथु (6) वैवर्ण्य (7) अश्रु एवं (8) प्रलय। 


संचारी भाव या व्यभिचारी भाव - जो भाव हृदय में नित्य विद्यमान होते हैं, वे स्थायी भाव हैं, किन्तु कुछ भाव थोड़ी देर के लिये आते हैं और स्थायी भाव को पुष्ट करके चले जाते हैं, वे संचारी भाव कहलाते हैं। ये किसी एक रस में बँधे नहीं होते, अतः इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। इनकी संख्या 33 मानी गयी है, किन्तु कालान्तर में आचार्य भानुगुप्त तथा कवि देव ने ‘छल’ को चौतीसवाँ संचारी भाव माना और पुनः आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘चकपकाहट’ को पैंतीसवाँ संचारी भाव माना, किन्तु ये मान्य नहीं हो सके।
 

रस भेद
   
यदि हम रस के प्रकारों पर विचार करें, तो शास्त्रीय मत के अनुसार नौ स्थायी भाव माने जाते हैं और उन्हीं के अनुकूल उनके रस-रूप को प्राप्त करने वाले नौ रस माने गये हैं। ये नौ रस इस प्रकार हैं -


(1) शृंगार रस
(2) वीर रस
(3) करुण रस
(4) रौद्र रस
(5) भयानक रस
(6) अद्भुत रस
(7) वीभत्स रस
(8) शान्त रस एवं
(9) हास्य रस


ये सभी संस्कृत के अनुसार एवं शास्त्रीय दृष्टि से कहे गये हैं। कालान्तर में आचार्य विश्वनाथ ने ‘वात्सल्य’ को दसवाँ रस माना और उनके बाद रूपगोस्वामी ने ‘मधुर’ रस नामक ग्यारहवें रस को माना, जिसे बाद में ‘भक्ति रस’ के नाम से जाना गया।
   
(1) शृंगार रस - नर-नारी का पारस्परिक आकर्षण शृंगार रस का आधार है, जिसे काव्यशास्त्र में ‘रति’ कहा जाता है। जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रति नामक स्थायी भाव का आस्वाद प्राप्त होता है, तो उसे शृंगार रस कहते हैं। इसके दो भेद हैं - संयोग या सम्भोग एवं वियोग या विप्रलम्भ। संयोग मिलन का द्योतक है, जबकि वियोग विरह का। वियोग के भी चार भेद कहे गये हैं - (1) पूर्वराग (2) मान, (3) प्रवास एवं (4) करुण।


(2) वीर रस - काव्यादि में शत्रु के पराक्रम, आक्रमण, किसी की दीनता, दुर्दशा आदि को देखकर, पढ़कर या सुनकर चित्त में जो उत्साह उत्पन्न होता है, वह विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाप में परिपुष्ट होकर आस्वादन के योग्य हो जाता है, वहाँ वीर रस होता है। वीर रस के चार भेद किये गये हैं - (1) युद्धवीर, (2) दयावीर, (3) धर्मवीर एवं (4) दानवीर। शृंगार के बाद वीर रस की ही प्रधानता मानी गयी है। 


(3) करुण रस - प्रेमपात्र के चिर-वियोग में पीड़ित होने, इष्ट वस्तु की हानि, अप्रिय की प्राप्ति, अपमान, पराजय, विपत्ति आदि से उत्पन्न हुए क्लेश की व्यंजना से जो शोक नामक स्थायी भाव पुष्ट होता है वही करुण रस में परिणत होता है। 


(4) रौद्र रस - अहितकारी शत्रु की धृष्ट चेष्टाओं द्वारा किये गये अपमान, अपकार आदि से उत्पन्न क्रोध से रौद्र रस की अभिव्यक्ति होती है। यहाँ वीर रस और रौद्र रस में जो अंतर है उनको समझ लेना चाहिए क्योंकि एक का स्थायी भाव उत्साह है और दूसरे का क्रोध।


(5) भयानक रस - भयदायक वस्तु को देखने अथवा सुनने से अथवा प्रबल शत्रुओं के कारण उत्पन्न हृदय में स्थित ‘भय’ का स्थायी भाव जब विभावादि से पुष्ट होता है, तो भयानक रस की अभिव्यक्ति होती है।

 
(6) अद्भुत रस - किसी विचित्र, अभूतपूर्व, अश्रुतपूर्व अथवा असाधारण वस्तु को देखने अथवा सुनने से हृदय में जो आश्चर्य का भाव उत्पन्न होता है, उसी का वर्णन अद्भुत रस कहा जाता है।


(7) वीभत्स रस - अरुचिकर, घृणित वस्तुओं के वर्णन से जहाँ जुगुप्सा या घृणा उत्पन्न हो और वे विभावादि की सहायता से परिपुष्ट हों, तो उस रस को वीभत्स रस कहा जाता है।


(8) शांत रस - संसार की नश्वरता एवं परमात्मा के रूप का ज्ञान होने से संसार के प्रति जो विरक्ति की भावना उत्पन्न होती है, उसे निर्वेद कहा जाता है। इसी स्थायी भाव के उत्पन्न होने पर जब विभावादि द्वारा पुष्ट होते हैं, तो शान्त रस की अभिव्यक्ति होती है।


(9) हास्य रस - किसी वस्तु या व्यक्ति की साधारण से विपरीत विचित्र या विकृत आकृति, विकृत वेशभूषा, अटपटी वाणी, कुछ हँसी उत्पन्न करने वाला बातचीत का ढंग आदि चेष्टायें देखकर या पढ़कर या सुनकर मन में विनोद का भाव उत्पन्न होता है, जिसे हास कहते हैं। जब ये बाह्य कारणों विभावादि की सहायता से जागृत होते हैं, तो जो अभिव्यक्ति होती है, वह ‘हास्य रस’ है। इसके छः भेद हैं - (1) स्मित (2) हसित (3) विहसित (4) अबहसित (5) अपहसित एवं (6) अतिहसित।


(10) वात्सल्य रस - संस्कृत की काव्य परम्परा में वात्सल्य को शृंगार रस के अर्न्तगत माना है। किन्तु शृंगार का स्थायी भाव ‘रति’ है, जबकि वात्सल्य माता-पिता का संतान के प्रति स्नेह है और उससे पुष्ट भाव है। अतः इसे भी मान्यता मिली है।


(11) भक्ति रस - इसे शान्त रस में माना गया है। किन्तु शान्त रस में निर्वेद की स्थिति होती है, जो विरागात्मक है, जबकि भक्ति रागात्मक है। इसका स्थायी भाव ईश्वर-विषयक प्रेम होता है। इसे भी एक रस के रूप में मान्यता मिली है।

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विश्वजीत 'सपन'