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Wednesday 10 February 2016

निदा फ़ाज़ली



मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली का जन्म 12 अक्टूबर 1938 को हुआ था। उनका असली नाम मुक़्तादा हसन था। वे निदा फ़ाज़ली के नाम से लिखते थे। उन्हें बचपन से ही लेखन में रुचि थी। उनके पिता मुर्तुज़ा हसन भी शायर थे। कहते हैं कि जब वे ग्वालियर में पढ़ाई कर रहे थे, तब एक लड़की उनके सामने की पंक्ति में बैठा करती थी, जिससे वे अनजान रिश्ता बना गये थे। प्रतिदिन उसे देखना और लिखना उनकी आदत बन गयी थी। फिर एक दिन उस लड़की का निधन एक दुर्घटना में हो गया। इस घटना ने उन्हें झकझोर दिया। वे इस दुःख को अभिव्यक्ति देने में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहे थे। फिर एक दिन एक मंदिर के सामने से गुज़रते समय उन्होंने सूरदास की पंक्तियाँ सुनी - ‘‘मधुबन तुम क्यों रहत हरे? बिरह बियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे?’’। इन पंक्तियों ने उन्हें अत्यन्त प्रेरित किया कि भाषा जितनी सरल हो, लोगों तक उतनी ही अधिक पहुँचती है। उनकी शैली में यही बात दिखाई देती है।

साम्प्रदायिक दंगों के कारण इनके माता-पिता पाकिस्तान चले गये, लेकिन इन्होंने भारत में ही रहना तय किया। वे अपने आरम्भिक जीवन में संघर्ष करते रहे और फिर उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में लिखने का अवसर मिला। बाद में वे फिल्मी दुनिया में पहुँचे और उन्होंने कई यादगार गीत भारतीय जनता को दिये। उनके कुछ गीत और कुछ शायरी आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं - 


(1) कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मी तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता 


(2) तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है
जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफिल है


(3) आई ज़ंजीर की झनकार ख़ुदा ख़ैर करे
दिल हुआ किसका गिरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे


(4) दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाये तो मिट्टी है, खो जाये तो सोना है 


(5) हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी


उनके कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए और उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। साहित्य अकादमी का पुरस्कार उन्हें ‘खोया हुआ सा कुछ’ पर मिला और 2013 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। उन्होंने हमेशा ही अमन-चैन के लिये अपनी ज़िन्दगी जी और आज अमर होकर हम सभी के दिल में बस गये हैं। उनकी कई ग़ज़लों को जगजीत सिंह ने लोगों के मध्य बहुत प्रसिद्ध किया। यह नाम भारतीय सिनेमा जगत और साहित्य के आकाश में हमेशा चमकता रहेगा।
विश्वजीत ‘सपन’