Followers

Sunday 10 September 2017

अपेक्षायें कष्टकारक होती हैं

‘‘अपेक्षायें कष्ट देती हैं’’ सुनकर अजीब लगता है, किन्तु यह एक विचारणीय बिन्दु है। इसका यह अर्थ नहीं कि अपेक्षा होना बुरी बात है। अपेक्षा होगी, क्योंकि यह मानवीय अनुभूति है, किन्तु समस्या तब प्रारंभ होती है, जब वह पूरी नहीं होती। यह एक सामान्य बात है कि कोई भी मानव घर-परिवार, रिश्ते-नातेदार, मित्र आदि, सबसे कोई न कोई अपेक्षा रखता ही है। यह अनहोनी नहीं है, बल्कि स्वाभाविक है। इसके बाद भी अंततः ये कष्ट देती हैं। यह विचार करना आवश्यक जान पड़ता है। 

जीवन निरन्तर गतिमान है और इस गतिशीलता के दौरान एक मानव अनगिनत पड़ावों से गुज़रता है। प्रत्येक पड़ाव पर मानव की कुछ न कुछ अपेक्षा अवश्य होती है, किन्तु उसकी पूर्ति न हो, तो मन को ठेस पहुँचती है। एक समय आता है, जब मानव सहसा महसूस करता है कि उसे इन अपेक्षाओं से मुक्ति पा लेनी चाहिये। यदि उसने ऐसा कर लिया, तो ठीक, किन्तु नहीं कर पाया तो उसका मन व्यथित होता है और वह नकारात्मक सोच की ओर आकर्षित हो उठता है। वह जीवन को सुखमय नहीं देख पाता है और उसका जीवन अंधकारमय हो जाता है। उसकी नकारात्मक सोच ऋणात्मक ऊर्जा को जन्म देती है, जो उसके मन एवं शरीर को हानि पहुँचाने की क्षमता रखती है। यह एक अनुचित अवस्था है। यदि उसके मन की सोच बहुत बलवती ढंग से कह पाती है कि इससे मुक्ति ही जीवन को सुखमय बना सकती है, तो वह जीवन को सकारात्मक देखने लगता है। 


मन चंचल है और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर है। संवेदना जहाँ मानव-मन को मानवीयता की ओर ले जाती है, वहीं निर्बल भी बनाती है। संवेदनशील मन अपेक्षाओं की अपूर्त अवस्था में पीड़ित होता है और कष्ट का भागी बनता है। इनसे मुक्ति पाने का यह कार्य कठिन अवश्य है, किन्तु असंभव नहीं और यही मानव हेतु निर्वाण-मार्ग प्रशस्त करता है। जीवन से अधिकाधिक अपेक्षायें ही बंधन का कारण हैं और बंधन निर्वाण-मार्ग में बाधक है। अतः जीवन के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति के लिये एवं सदा सकारात्मक सोच के साथ होने के लिये मानव-मन को अपेक्षाओं से मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर प्रतीत होता है। 


स्वस्थ, सकारात्मक सोच की ओर बढ़ना ही मानव-उद्देश्य हो, तो उत्तम। इस हेतु प्रतिदिन कार्य करते रहने से इस साधना में सहायता मिलती है। साधक अपने लक्ष्य की प्राप्ति समय के साथ करने में सफल होता है।
 

*** विश्वजीत ‘सपन’